Mera Bachpan Meri Shaitaaniyan
मेरा बचपन मेरी शैतानियाँ
I have shared Mera Bachpan Meri Shaitaaniyan – मेरा बचपन मेरी शैतानियाँ story in hindi and english along with question answers.
मेरा बचपन मेरी शैतानियाँ (Mera Bachpan Meri Shaitaaniyan)
बचपन की शैतानियों का मजा ही कुछ और है– कभी शाबाशी, कभी डाँट, कभी रोना–रुलाना, सब कुछ आनंद–ही–आनंद देता है। सच्चाई तो यह है कि बचपन में स्वर्ग चारों ओर बिखरा रहता है। आप भी जब–तब शैतानियाँ करते होंगे, उन्हें याद कीजिए और मुसकराइए। प्रस्तुत पाठ में सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर हमें स्वयं अपने बचपन और शैतानियों से परिचित करवा रही हैं। आइए, देखते हैं एक बानगी…
28 सितंबर, 1929 को इंदौर के सिख मोहल्ले में मेरा जन्म हुआ। मुझे बाद में पता चला था कि मेरे जन्म के समय मेरे पिता दीनानाथ मंगेशकर अपने कार्यक्रम के सिलसिले में यात्रा पर थे। यह आम परंपरा रही है कि पहले बच्चे का जन्म ननिहाल में ही होना चाहिए। लिहाज़ा मेरी माँ, मेरी दादी माँ के साथ नानी जी के घर इंदौर चली गई थीं।
मैं अपने पिता को ‘बाबा‘ कहती थी। घर–परिवार में माँ को सभी ‘माई‘ कहकर बुलाते थे।
जब मेरा जन्म हुआ तो पिता जी ने मेरा नाम ‘हृदया‘ रखा। बाद में उन्होंने मेरा नाम ‘लता‘ रख दिया। उस जमाने में मंच पर पुरुष ही महिला का चरित्र अभिनीत करते थे। ‘भावबंधन‘ नामक नाटक में बाबा ने ‘लतिका‘ नाम के चरित्र को अभिनीत किया था।।वे उससे बेहद प्रभावित थे इसीलिए उन्होंने मेरा नाम लता रखा।
मेरे बाबा ‘किर्लोस्कर नाटक मंडली‘ में काम करते थे। उन्होंने कथक सीखा था। उनका उर्दू नाटक ‘ताज़–ए–वफ़ा‘ बेहद पसंद किया गया था। उन्होंने स्वयं को रंगमंच को समर्पित कर रखा था। मेरे बाबा गोवा के ‘मंगेशी‘ गाँव के थे। जब वे आठ–नौ साल के थे, तभी उनकी माँ ने उन्हें संगीत सीखने के लिए बाबा मशेलकर जी के पास भेज दिया था। बाद में वे ग्वालियर घराने में शागिर्द हुए। संगीत के रस से भरा–पूरा था मेरे बाबा का संसार !
बचपन की आँखों में झाँकती हूँ, तो मुझे बाबा के गायन की ध्वनि सुनाई पड़ती है। मैं उनकी बताई बातें एक–एक कर हमेशा नोट करती थी, किंतु मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि मैं भी उनके सामने गाने की बात कहूँ।
एक दिन बाबा अपने शिष्यों को राग पूरिया धनाश्री सुना रहे थे। अचानक वे किसी कारण से कुछ देर के लिए बाहर चले गए। शिष्यगण वहाँ गा रहे थे और मैं बाहर से उनका गायन सुन रही थी। तभी मुझे लगा, एक लड़का ठीक से नहीं गा रहा है। मैं अंदर चली गई और मैंने स्वयं उसे गाकर सुनाया। उसी समय बाबा आ गए और उन्होंने मुझे गाते सुना, तुरंत ज़ोर से माई को पुकारा। बोले, “घर में इतना अच्छा गायक मौजूद है और हमें पता ही नहीं!”
यह बात तब की है, जब मैं पाँच–छह बरस की थी। दूसरी सुबह बाबा ने मुझे भोर में ही उठा दिया और मेरे हाथों में तानपूरा पकड़ा दिया। मेरी संगीत की शिक्षा आरंभ हो गई ! यह आरंभ राग पूरिया धनाश्री से हुआ।
जब हम महाराष्ट्र के सांगली में थे, उस समय हमारा तेरह कमरोंवाला बड़ा–सा घर था। हम ऊपरी मंज़िल पर रहते थे। ग्राउंड फ़्लोर किराए पर दे रखा था। बाबा ने संगीत की शिक्षा देने के साथ ही यह भी नसीहत दी थी, “मैं तुम्हारा पिता हूँ और पिता गुरु की तरह होता है। याद रखना, पिता या गुरु जब तुम्हें सिखाए तो तुम्हें उनसे अच्छा गाना है, बस! यह नहीं सोचना है कि कैसे उनकी मौजूदगी में गाऊँ और यह भी याद रखना कि अपने गुरु को कभी भूलना नहीं है।” बाबा के कहे ये शब्द आज भी मुझे याद हैं।
हमारा परिवार परंपरावादी था। हमारे घर में फ़िल्मी संगीत बिलकुल पसंद नहीं किया जाता था।
शास्त्रीय गायन ही गाया जाता था। पारंपरिक होने के साथ बाबा बहुत सख्त भी थे। पाउडर लगाना, मेकअप करना उन्हें कतई पसंद नहीं था। उन्हें हमारा मुक्त होकर न तो बाहर जाना पसंद था और न ही देर रात तक नाटक देखना। अपनी नाटक मंडली के शो में भी वे हमें नहीं जाने देते थे।
माई परंपरानुसार, नौ गज की साड़ी पहनतीं थीं। वे विशुद्ध शाकाहारी थीं किंतु बाब के लिए मांसाहारी व्यंजन ज़रूर बनाती थीं मेरा भाई ‘हृदयनाथ‘ और उनकी बेटी ‘राधा शाकाहारी हैं। यहाँ तक कि वे अंडा भी नहीं खाते किंतु हम चारों बहनें मांसाहारी हैं।
बाबा को फ़िल्में पसंद नहीं थीं इसलिए हमें फ़िल्म देखने का मौका कभी नहीं मिलता था किंतु कलकत्ता थिएटर की मालजी पेंढारकर की मराठी फ़िल्मों को उनके संगीत और विषय–वस्तु के कारण जब–तब देखने का मौका मिल जाता था। बाबा उस समय के प्रसिद्ध गायक और अभिनेता कुंदनलाल सहगल साहब को पसंद करते थे। मुझे सहगल साहब के गीत गाने की छूट थी इसलिए घर में मैं उनका गीत ‘एक बंगला बने न्यारा‘ गाया करती थी।
जब मैं नौ साल की थी, तो एक बार बाबा शोलापुर की यात्रा पर थे। वहाँ मैंने उनसे गाने की इच्छा प्रकट की। वे बोले, “गा लेना, पर कौन–सा राग तुम गाओगी?” मैं खुशी से बोली, “मैं राग ‘खंबावती‘ गाऊँगी। दो गीत भी गाऊँगी।“
मुझे अनुमति मिल गई। उस दिन शोलापुर के नूतन थिएटर में बाबा के सामने गाने का पहली बार मौका मिला था। वहाँ मैंने दो गीत गाए। मंच पर वह मेरे जीवन का पहला गायन था।
हम सभी बहनें बचपन से आज तक एक–दूसरे को बेहद चाहती हैं और हममें बेहद स्नेह और प्यार का भाव भी है। अब हमारी कभी लड़ाई नहीं होती, किंतु बचपन में हमारी आपस में खूब लड़ाई होती थी।
सच–सच‘ बताऊँ, बचपन में मैं अद्भुत खेल खेलती थी। मैं कार के टायर के भीतर घुस जाती और मेरे दोस्त उस पहिए के साथ मुझे भी ‘रोल‘ कर देते थे। मैं बहुत नटखट लड़की रही हूँ। पेड़ों पर चढ़ना, अमरूद और आम तोड़ना मेरे शौक थे। जब कभी हम कोई फ़िल्म देखते, तो घर आकर सब मिलकर उसके दृश्यों को अभिनीत किया करते थे।
एक बार मैंने एक नाटुक लिखा। उसे घर में ही मंचित किया। मैंने अच्छी हीरोइन का चरित्र निभाया। ‘आशा‘ तब छोटी थी इसलिए वह राजकुमारी बनी। मीना बहुत ही कठोर है, तो उसने लड़के का किरदार निभाया और पद्मिनी कोल्हापुरी के पिता पांधरीनाथ उसमें विलेन बने। बहुत मज़ा आया था।
बचपन में मैं गुल्ली–डंडा और ताश खेलती थी। बाबा मुझे ‘टाटा बाबा‘ कहकर बुलाते। माई जिब भी शिकायत करती तो वे उनसे कहते, “मैं यहाँ ज़्यादा समय तक नहीं रहूँगा। यह लड़की ही तुम्हारा खयाल रखेगी।“
हम सभी बहुत ही शैतान थे। मेरी शैतानी की हद हो जाती, तो बाबा मुझे बुलाते और मेरी ओर घूरकर कहते, “जानती हो, क्यों बुलाया है?”
मैं धीरे से बोलती, “हाँ, जानती हूँ।”
“ठीक है, जाओ।“
यह सुनते ही मैं भाग जाती। बाबा ने मुझे न कभी डाँटा, न मारा। मेरे पास जो कुछ भी है, मेरे बाबा और माई का दिया हुआ है।
एक बात मुझे और याद आ रही है, तब मैं पाँच–छह बरस की थी। सांगली में एक दिन माई ने घर के नौकर विठ्ठल को साबुन खरीदने के लिए भेजा। दुकानदार चिलिया ने विठ्ठल को वापस भेज दिया क्योंकि दो आने का वह सिक्का खोटा था। मैंने उससे वह सिक्का छीन लिया और खुद ही खोटा सिक्का चलाकर सामान ले आई। जब घर पहुँची तो माई ने जमकर डाँट पिलाई और दो आने का नया सिक्का देकर दुकानदार चिलिया के पास भेजा। मैंने दुकानदार से खोटा सिक्का वापस माँगा और माफ़ी भी माँगी। फिर मैंने कभी ऐसी गलती नहीं की।
My Childhood Mischief
There’s something special about childhood mischief—it brings a mix of praise, scolding, tears, and laughter, all adding up to pure joy. Indeed, childhood is like being surrounded by a little piece of heaven. You might remember your own mischievous moments; think back on them and smile. In this lesson, the renowned singer Lata Mangeshkar shares stories from her own childhood and her playful antics. Let’s take a look at one such story…
I was born on September 28, 1929, in the Sikh neighborhood of Indore. I later learned that my father, Deenanath Mangeshkar, was away on a trip due to his performances at the time of my birth. It was a common tradition for the first child to be born at the maternal home. Accordingly, my mother went to stay with her mother in Indore.
I used to call my father ‘Baba’, and everyone called my mother ‘Mai’.
When I was born, my father named me ‘Hridaya’, but later changed it to ‘Lata’. During that era, men often played women’s roles on stage. Baba had played a character named ‘Latika’ in a play called ‘Bhavbandhan’, which impressed him so much that he decided to name me Lata.
My Baba worked with the ‘Kirloskar Theater Company’. He had learned Kathak dance and was particularly fond of Urdu plays, one of his popular plays was ‘Taz-e-Wafa’. He was dedicated to the theater. Baba was originally from Mangeshi village in Goa. When he was about eight or nine years old, his mother sent him to learn music from Baba Mashelkar. Later, he became a student in the Gwalior gharana, immersed in the world of music.
Looking back at my childhood, I remember the sound of Baba’s singing. I always noted down everything he taught, but I was too shy to sing in front of him.
One day, while Baba was teaching his students the Raag Pooriya Dhanashree, he had to step out for a while. The students continued singing, and I listened from outside. Noticing one boy was not singing correctly, I went in and sang it myself. Just then, Baba returned and heard me. He immediately called out to Mai, saying, “We have such a good singer at home, and we didn’t even know!”
This was when I was about five or six years old. The next morning, Baba woke me up early and handed me a tanpura. That was the beginning of my music lessons, starting with Raag Pooriya Dhanashree.
When we lived in Sangli, Maharashtra, we had a large house with thirteen rooms, and we lived on the upper floor while the ground floor was rented out. Along with teaching me music, Baba also advised, “I am your father, and a father is like a teacher. Remember, you have to sing better than your teacher, that’s it! Don’t think about how to sing in their presence, and never forget your teacher.” These words from Baba are still with me today.
Our family was traditional. We did not like film music at home. We sang only classical music. Being traditional, Baba was also very strict. He disliked makeup and us going out freely or staying out late to watch plays. We were also not allowed to attend shows of his theater group.
Mai always wore a nine-yard saree, following tradition. She was a strict vegetarian, but she cooked non-vegetarian dishes for Baba. My brother ‘Hridayanath’ and his daughter ‘Radha’ are vegetarians. They don’t even eat eggs, but we four sisters are non-vegetarians.
Baba did not like movies, so we rarely got a chance to watch them. However, occasionally we were allowed to watch Marathi films by Dada Pendharkar in Kolkata theaters because of their music and themes. Baba admired the famous singer and actor Kundanlal Saigal, and I was allowed to sing his songs at home, like ‘Ek Bangla Bane Nyara’.
When I was nine, during a trip to Solapur with Baba, I expressed my desire to sing. He asked, “What raga will you sing?” I happily said, “I will sing Raga ‘Khambavati’ and two songs.”
I was granted permission. That day, I got the chance to sing in front of Baba for the first time at Solapur’s Nutan Theater. There, I performed two songs. It was my first public singing performance on stage.
We sisters have always loved each other deeply and share a strong bond. We no longer fight, but as children, we often quarreled.
Honestly, I played wonderful games in my childhood. I would climb inside a car tire, and my friends would roll it along with me inside. I was a very mischievous girl. Climbing trees and picking guavas and mangoes were my favourite pastimes. Whenever we watched a film, we would come home and act out the scenes together.
Once, I wrote a play and staged it at home. I played the role of the heroine. ‘Asha’ was young, so she played a princess. Meena, being quite tough, played a boy’s role, and Padmanabha Kolhapure, Padmini Kolhapure’s father, played the villain. We had a lot of fun.
I used to play gilli-danda and cards in my childhood. Baba called me ‘Tata Baba’. Whenever Mai complained, he would tell her, “I won’t be here for much longer. This girl will take care of you.”
We were all quite mischievous. When my mischief went too far, Baba would call me and sternly ask, “Do you know why I’ve called you?”
I would quietly say, “Yes, I know.”
“Alright, go then.”
And with that, I would run away. Baba never scolded or hit me. Everything I have today was given to me by my Baba and Mai.
I remember another incident from when I was five or six years old in Sangli. One day, Mai sent our servant Vitthal to buy soap. The shopkeeper, Chiliya, sent Vitthal back because the two-anna coin was counterfeit. I snatched the coin from him and managed to spend it at the shop myself. When I got home, Mai scolded me heavily and sent me back to the shopkeeper Chiliya with a new two-anna coin. I asked the shopkeeper for the counterfeit coin back and apologized. I never made such a mistake again.
Mera Bachpan Meri Shaitaaniyan Question Answers
1. बाबा ने अपनी पुत्री का नाम ‘लता‘ क्यों रखा?
- बाबा ने अपनी पुत्री का नाम ‘लता‘ इसलिए रखा क्योंकि उन्होंने ‘भावबंधन‘ नामक नाटक में ‘लतिका‘ नाम के चरित्र को अभिनीत किया था और उस चरित्र से वे बेहद प्रभावित थे।
1. Why did Baba name his daughter ‘Lata’?
- Baba named his daughter ‘Lata’ because he had played a character named ‘Latika’ in a play called ‘Bhavbandhan’ and was very impressed by that character.
2. पाठ के उन अंशों को छाँटकर लिखिए, जिनसे लता जी की संगीत में रुचि जान पड़ती है।
यहाँ वे अंश दिए गए हैं जिनसे लता जी की संगीत में रुचि का पता चलता है:
- “एक दिन बाबा अपने शिष्यों को राग पूरिया धनाश्री सुना रहे थे। अचानक वे किसी कारण से कुछ देर के लिए बाहर चले गए। शिष्यगण वहाँ गा रहे थे और मैं बाहर से उनका गायन सुन रही थी। तभी मुझे लगा, एक लड़का ठीक से नहीं गा रहा है। मैं अंदर चली गई और मैंने स्वयं उसे गाकर सुनाया। उसी समय बाबा आ गए और उन्होंने मुझे गाते सुना, तुरंत ज़ोर से माई को पुकारा। बोले, “घर में इतना अच्छा गायक मौजूद है और हमें पता ही नहीं!””
- “दूसरी सुबह बाबा ने मुझे भोर में ही उठा दिया और मेरे हाथों में तानपूरा पकड़ा दिया। मेरी संगीत की शिक्षा आरंभ हो गई ! यह आरंभ राग पूरिया धनाश्री से हुआ।“
2. Identify the parts from the text that show Lata Ji’s interest in music.
Here are the parts that show Lata Ji’s interest in music:
- “One day, Baba was teaching his students Raag Pooriya Dhanashree. Suddenly, he had to leave for a bit. The students were singing, and I was listening from outside. Then, I felt that one boy was not singing correctly. I went inside and sang it myself. Just then, Baba came back and heard me singing. He immediately called out loudly for Mai, saying, ‘We have such a good singer at home, and we didn’t even know!'”
- “The next morning, Baba woke me up early and handed me a tanpura. My music education began! It started with Raag Pooriya Dhanashree.”
3. बाबा ने लता को कौन–सी नसीहतें दी थीं?
- बाबा ने लता को नसीहत दी थी कि “मैं तुम्हारा पिता हूँ और पिता गुरु की तरह होता है। याद रखना, पिता या गुरु जब तुम्हें सिखाए तो तुम्हें उनसे अच्छा गाना है, बस! यह नहीं सोचना है कि कैसे उनकी मौजूदगी में गाऊँ और यह भी याद रखना कि अपने गुरु को कभी भूलना नहीं है।“
3. What advice did Baba give to Lata?
- Baba advised Lata, “I am your father, and a father is like a teacher. Remember, when your father or teacher teaches you, you must sing better than them, that’s it! Don’t think about how to perform in their presence, and always remember to never forget your teacher.”
4. बाबा मेकअप करने, बाहर जाने और नाटक देखने से क्यों मना करते थे?
- बाबा बहुत पारंपरिक और सख्त थे। उन्हें मेकअप करना और बाहर जाना पसंद नहीं था। वे हमारा मुक्त होकर बाहर जाना और देर रात तक नाटक देखना पसंद नहीं करते थे क्योंकि वे चाहते थे कि परिवार पारंपरिक मूल्यों का पालन करे और घरेलू संस्कृति को बनाए रखे।
4. Why did Baba forbid makeup, going out, and watching plays late at night?
- Baba was very traditional and strict. He disliked makeup and going out. He did not like us going out freely or watching plays late at night because he wanted the family to follow traditional values and maintain a domestic culture.